ज़ख़्म जो भरते नहीं
साए की तरह यादें, हर मोड़ पर मिलती हैं,
वो बातें, वो लम्हे, अब भी दिल में चुभती हैं।
तानों की आँच में, जलता रहा मैं हर रोज़,
शब्द थे किसी और के, दर्द मेरा बनती हैं।
मेहनत करूँ तो कोई क़दर नहीं, सब नज़रअंदाज़,
एक ग़लती हुई तो, नाम बदनाम कर जाते हैं।
मेरी क़ाबिलियत पर सवाल उठे, बिना वजह,
जिन्हें मैंने राह दिखाई, वो आगे निकल जाते हैं।
गिरकर उठना चाहता हूँ, मगर कसक रोके खड़ी है,
हर दर्द नया सा लगता है, हर चोट फिर से बड़ी है।
ज़ख़्म भरते भी हैं क्या? या बस निशाँ बन जाते हैं,
समय गुज़र जाता है, मगर जवाब नहीं आते हैं।
✍ - हर्षद कुंभार
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